भारत में काला आज़ार के बाद डर्मल लेशमेनियासिस
क्या लेशमेनियासिस का एक प्रकार भारत मे उन्मूलन प्रयासों के लिए चुनौती बन सकता है?
22 July 2019
रूबी देवी ने जब भारत के सबसे गरीब राज्य बिहार से देश की राजधानी का रूख किया तो उन्हें लगा कि विसरल लेशमेनियासिस के साथ चल रही उनकी आज़माइश अब पूरी हुई | विसरल लेशमेनियासिस जिसे भारत में काला आज़ार के नाम से भी जाना जाता है | वे बीमार पड़ीं, बुखार बढ़ने के साथ साथ वज़न कम होता गया लेकिन उन्हें मिले उपचार ने उनकी ज़िन्दगी बचा ली |
तो जब उनके पति एक बेहतर जीवन की तलाश में राजधानी की तरफ़ चले तो वे भी पति के साथ हो लीं |
दो वर्ष बाद वे गर्भवती हुईं | लगभग उसी समय उनका ध्यान त्वचा पर पड़ रहे चकत्तों और चेहरे पर उभर रहे धब्बों पर पड़ा जो जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे | धीरे धीरे ये उनके पूरे शरीर में फैल गया | इन चकत्तों में जब खुजली और दर्द होने लगा तो उन्होंने डॉक्टर से संपर्क किया |
“मुझे ख़ुद पर शर्म आती थी और मेरा कहीं भी जाने का मन नहीं होता था”, रूबी कहती हैं | “मेरे आस पास के लोग कभी व्यंग्य तो कभी नफ़रत भरे ताने देकर हँसते | मैं अपमानित महसूस करती थी |”
जाँच करने पर डॉक्टर ने पाया कि रूबी को पोस्ट काला आज़ार डर्मल लेशमेनियासिस (पीकेडीएल) है | ये त्वचा की एक ऐसी स्थिति है जो किसी के द्वारा काला आज़ार का सफलतापूर्वक उपचार पूरा हो जाने के कुछ महीनों बाद विकसित हो सकती है |
रूबी के लिए ये लेशमेनियासिस के लौट आने जैसा था |
काला बुखार
लेशमेनियासिस के अलग अलग प्रकार होते हैं | एक पारजैविक (पैरासिटिक) बीमारी जो बालू मक्खी के काटने से फैलती है | बालू मक्खी इंसानी आँखों को बमुश्किल दिखती है | विसरल लेशमेनियासिस (काला आज़ार), क्यूटेनियस लेशमेनियासिस व म्यूकोक्यूटेनियस लेशमेनियासिस इसके प्रकार हैं | पोस्ट काला आज़ार डर्मल लेशमेनियासिस आमतौर पर विसरल लेशमेनियासिस की अगली कड़ी है जो कि मैक्यूलर, पैक्युलर या नॉड्युलर चकत्तों के रूप में चेहरे, बाँह के ऊपरी हिस्से व शरीर के अन्य हिस्सों में दिखती है |
काला आज़ार की खोज सबसे पहले बंगाल (जिसमें आज का बांग्लादेश और भारत के हिस्से शामिल हैं जिनमे औपनिवेशिक समय का बिहार भी था) में हुई | इस बीमारी को यहीं इसका नाम मिला जिसका hindi में अर्थ होता है “काला बुखार”|
इसके कारण बुखार, वज़न कम होना, तिल्ली व यकृत (लीवर) में सूजन और एनीमिया हो जाता है | काला आज़ार के केस को अक्सर मलेरिया समझ लिया जाता है | ये एक बहुत तकलीफ़देह बीमारी जो इलाज न करने पर लगभग हमेशा घातक होती है |
काला आज़ार हर महाद्वीप पर पाया जा सकता है | 600 मिलियन से अधिक लोगों पर संक्रमण का खतरा है व एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में इसके 50000 से 90000 नए केस हर वर्ष हो रहे हैं | 90% से अधिक केस सात देशों में हुए जिनमें ब्राज़ील, इथियोपिया, भारत, सोमालिया, दक्षिणी सूडान व सूडान शामिल हैं |
खाली पड़े वार्ड
बिहार ऐतिहासिक रूप से भारत में काला आज़ार से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक है | बिहार के ऐसे संभावित ज़िले ज़िले गर्म व आद्र हैं | इसके साथ ही वनस्पति की प्रचुरता बालू मक्खियों को प्रजनन के लिए एक सही वातावरण देती है |
अनुमान के अनुसार भारत में वीएल के कुल केसों में 80% बिहार से आते हैं | भारत के कुल 54 प्रभावित जिलों में 33 बिहार में हैं |
लेकिन बिहार के अस्पतालों के काला अजार के वार्ड बड़े स्तर पर अब खाली पड़े हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे दक्षिणी एशिया के अधिकांश क्षेत्रों में होते हैं | उपचार के बेहतर विकल्पों के राष्ट्रीय दिशा निर्देशों में शामिल किये जाने, व देशों और दाता संस्थाओं की ओर से प्रतिबद्धता बढ़ने के कारण इस बीमारी को नियंत्रित करने के प्रयास काम करने लगे हैं |
नूतन कुमारी ने बिहार के वैशाली जिला अस्पताल के काला आज़ार वार्ड में बतौर स्टाफ़ नर्स 2007 से काम किया है |पिछले कुछ सालों में ख़ासतौर से सरकार द्वारा उपचार की नयी पद्धति की घोषणा के बाद उन्होंने काला आज़ार के केसों की संख्या में भारी गिरावट देखी है |
“कुछ साल पहले हमारे वार्ड में एक बार में 60 मरीज़ तक हो जाते थे”, वे बताती हैं | “अब हर हफ़्ते बमुश्किल 5 केस आते हैं | पहले हम लोग तीन पालियों में काम करते थे लेकिन अब हम लोग एक ही पाली में काम करते हैं और समय से घर लौट जाते हैं |”
दो कारक जिन्होंने इस नाटकीय बदलाव में योगदान किया:
बढ़ी प्रतिबद्धता: देशों की प्रतिबद्धता बढ़ने से अंतर देखा गया | 2005 में बांग्लादेश, भारत व नेपाल ने विश्व स्वास्थय संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सहयोग से एक क्षेत्रीय काला आज़ार उन्मूलन पहल की शुरुआत की |
इस साझेदारी का उद्देश्य ज़िले व उप ज़िले स्तर पर काला आज़ार के केसों को प्रतिवर्ष प्रति 10,000 लोगों पर एक केस से भी कम करना था | रणनीति का फोकस प्रारंभिक जाँच व सबसे पिछड़ी और कमज़ोर आबादी के उपचार पर था | इसके साथ ही बीमारी व वेक्टर की मज़बूत निगरानी व नियंत्रण भी प्राथमिकता में था |
बेहतर उपचार: उपचार के बेहतर विकल्प होना दूसरा बड़ा कारक था | कुछ समय पूर्व तक काला आज़ार के लिए उपचार के विकल्प भयंकर दुष्प्रभावों के साथ आते थे व उनकी निगरानी व व्यवस्था करना मुश्किल था | पिछले 10-15 वर्षों में नए व बेहतर उपचार उपलब्ध हुए हैं व ड्रग्स फ़ॉर नेग्लेक्टेड डिजीजेज़ इनिशिएटिव(डीएनडीआई) व साथी संस्थाओं द्वारा प्रभावशीलता पर किये गए एक अध्ययन के नतीजों ने ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करने में अहम् भूमिका निभायी जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय नियंत्रण कार्यक्रमों को काला आज़ार रोगियों के लिए छोटे, सुरक्षित व अधिक प्रभावी उपचार की सिफारिश करने के लिए प्रोत्साहित किया |
प्रयासों के फलस्वरूप नए केसों की संख्या में भारी गिरावट आई है | 2012 में बांग्लादेश में 1,902 केस दर्ज किये गए जो कि पांच वर्ष बाद घटकर 251 हो गए | भारत में केसों की संख्या 20,572 से घटकर 5,758 हो गयी | और नेपाल में 2017 में 231 मामले ही दर्ज हुए जबकि ये संख्या 2012 में 575 थी |
क्या लेशमेनियासिस के ख़िलाफ़ हो रही प्रगति के लिए पीकेडीएल खतरा है?
एक ओर जहाँ काला आज़ार के ख़िलाफ़ मिल रही सफलता उत्सव मनाने लायक है वहीँ लेशमेनियासिस विशेषज्ञों की चेतावनी चिंताजनक है | लेशमेनियासिस के विशेषज्ञों ने चेतावनी देते हुए स्वास्थय समुदाय को अतिउत्साहित व अतिप्रसन्न होने से बचने को कहा है: क्या बीमारी का वापस लौटना उन्मूलन प्रयासों को कमज़ोर कर सकता है?
इन स्थितियों में रोग के संचारित होने के संग्रह पहचानना ही कुंजी है | डीएनडीआई ने बांग्लादेश में संक्रमण पर एक अध्ययन किया है व उसी तरह का एक अध्ययन सूडान में किये जाने की योजना बना रही है ताकि पीकेडीएल रोगियों के बालू मक्खियों संक्रमित करने की प्रक्रिया को समझा जा सके | परीक्षण के एक हिस्से के तौर पर, पीकेडीएल रोगी अपने आपको लैब में रखी गयी बालू मक्खी (जो कि संक्रमण मुक्त होती हैं) द्वारा काटने देते हैं, जिनका इसके बाद वो परजीवी (पैरासाइट) पहचानने के लिए विश्लेषण होता है जिसके कारण काला आज़ार होता है |
डीएनडीआई व इंटरनेशनल सेन्टर फ़ॉर डायरियल डीज़ीज़ रिसर्च, बांग्लादेश (आईसीडीडीआर, बी) द्वारा बांग्लादेश में किये गए एक अध्ययन के नतीजे जुलाई 2019 में प्रकाशित हुए । नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि जिन रोगियों का काला- अज़ार का सफलतापूर्वक उपचार पूरा हो चुका है, वे भी अपने शरीर में पीकेडीएल विकसित होने की स्थिति में दोबारा दूसरों को संक्रमित कर सकते हैं ।
"इन्फेक्टिविटी" अध्ययन के नतीजे साझा करती अंग्रेज़ी की प्रेस विज्ञप्ति में दर्ज
पीकेडीएल रोगियों का काला अज़ार का उपचार पूरा होने के सालों बाद भी त्वचा में घाव विकसित हो सकते हैं जो लंबे समय तक अनुपचारित रह जाते हैं । इसी कारण बीमारी का संचरण काला अज़ार के नियंत्रित और कम संख्या दर्ज होने के बाद भी हो सकता है ।
इस तरह पीकेडीएल दक्षिणी एशिया में काला आज़ार उन्मूलन के सफल प्रयासों के लिए खतरा बन जायेगा व भारत, नेपाल व बांग्लादेश में राष्ट्रीय कार्यक्रमों के सम्बंधित अधिकारियों से एक त्वरित व केन्द्रित रणनीति की मांग करेगा | पीकेडीएल रोगियों की समय से पहचान व प्रारंभिक उपचार किसी भी काला आज़ार सार्वजनिक स्वास्थय व उन्मूलन रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा |
बच्चे भी संभावित शिकार हैं
14 वर्ष की रिंकी कुमारी उस समय बिहार के वैशाली ज़िले की एक खुशमिज़ाज छात्रा थी जब काला आज़ार ने 2013 में उस पर इस तरह हमला किया कि उसकी पढ़ाई रुक गयी |
रिंकी हफ़्तों तक लगातार बुखार व थकान में रही | इस कारण वो कक्षा की वार्षिक परीक्षा न दे सकी और फेल हो गयी | “मेरे सहपाठी अगली कक्षा में चले गए और मैं पीछे छूट गयी”, रिंकी कहती है |
काला आज़ार से उबरने के दो साल बाद रिंकी के चेहरे पर निशान दिखने लगे | उसकी दादी उसे अस्पताल लेकर गयीं लेकिन त्वचा विशेषज्ञ का महीने भर लम्बा इलाज भी रिंकी के चेहरे के दाग न हटा सका |
“मुझे डर था कि मेरे दोस्त मुझे चिढायेंगे इसलिए मैंने बाहर जाना और दोस्तों के साथ खेलना बंद कर दिया” रिंकी बताती है | “लोगों ने मुझसे कहा कि ये दाग स्थायी हैं व ये मेरा जीवन बर्बाद कर देंगे क्यूंकि अब मेरी शादी नहीं होगी”, वो जोड़ती है |
अंततः किसी पड़ोसी ने सलाह दी कि वो बिहार के सबसे बड़े शहर व वहां की राजधानी पटना स्थित राजेंद्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज में जाए | वहां रिंकी में पीकेडीएल की पहचान हुई व उसे तीन महीने का उपचार दिया गया |
उसके चेहरे के सभी दाग गायब हो गए | अच्छी बात ये है कि रिंकी को बीमारी के दौरान मानसिक तौर पर जो कष्ट पहुंचा वो भी अब कम हो रहा है | “मैं उस पीड़ा से नहीं गुज़रना चाहती जिससे मुझे इस बीमारी के कारण दो बार गुज़रना पड़ा”, वो कहती है |
बेहतर उपचारों की खोज
हालाँकि जैसा रूबी और रिंकी की कहानियों से पता चलता है, पीकेडीएल प्राण घातक बीमारी नहीं है लेकिन कुछ बड़े सामाजिक कलंक बना सकती है | इस तरह के लोगों की मदद किये जाने की ज़रुरत है | भारत में काला आज़ार को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए पहले पीकेडीएल के सभी पक्षों को समझना ज़रूरी है | साथ ही इन रोगियों के उपचार के लिए अनुकूल उपकरण मुहैया कराने की ज़रुरत भी एक गंभीर पक्ष है |
वर्तमान में मौजूद उपचार असंतोषजनक हैं | वे बहुत लम्बे समय तक चलते हैं व कभी कभी 12 हफ़्तों तक का समय ले लेते हैं जो एक गैर घातक बीमारी पीकेडीएल का उपचार करने को रोगियों या स्वास्थय कार्यक्रमों के लिए मुश्किल बनाता है |
डीएनडीआई का लक्ष्य ऐसे छोटे, सुरक्षित व प्रभावी उपचार विकसित करना है | इस सम्बन्ध में ऐसे चिकित्सकीय अध्ययन भारत, बांग्लादेश व सूडान में शुरू हो चुके हैं जिसके ज़रिये पीकेडीएल के लिए नए उपचारों का आंकलन किया जा सके |
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Photo credit: Kishore Pandit-DNDi